👉 गीता का तेरहवाँ अध्याय शरीर (क्षेत्र) और आत्मा (क्षेत्रज्ञ) के भेद को स्पष्ट करता है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि यह देह नश्वर है, परंतु इसके भीतर स्थित आत्मा अमर और शाश्वत है।
मुख्य विषय
1. क्षेत्र (शरीर)
- यह भौतिक शरीर “क्षेत्र” कहलाता है।
- इसमें पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश), इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि सम्मिलित हैं।
- शरीर निरंतर परिवर्तनशील और नाशवान है।
2. क्षेत्रज्ञ (आत्मा)
- शरीर के भीतर जो आत्मा स्थित है और जो इसे अनुभव करता है, वह “क्षेत्रज्ञ” है।
- आत्मा शाश्वत, अजर-अमर और अविनाशी है।
3. सच्चा ज्ञान
श्रीकृष्ण बताते हैं कि सच्चा ज्ञान यह है कि –
- शरीर और आत्मा को अलग समझा जाए।
- विनम्रता, अहिंसा, क्षमा, शुद्धि, इन्द्रियनिग्रह और अनासक्ति को जीवन में धारण किया जाए।
- संसार के सुख-दुख को समान भाव से स्वीकार किया जाए।
4. परमेश्वर का स्वरूप
- भगवान समस्त प्राणियों में समान रूप से विद्यमान हैं।
- वे ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के भी आधार हैं।
- वे न तो जन्म लेते हैं और न ही नष्ट होते हैं।
5. ज्ञान और मुक्ति
- जो साधक शरीर (क्षेत्र) और आत्मा (क्षेत्रज्ञ) के भेद को समझ लेता है, वह परम सत्य को जान जाता है।
- ऐसा ज्ञानी ही मोक्ष को प्राप्त करता है।
महत्वपूर्ण श्लोक
“क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥”
(अध्याय 13, श्लोक 3)
अर्थ – शरीर (क्षेत्र) और आत्मा (क्षेत्रज्ञ) का ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है, यही मेरा मत है।
सरल सार (आसान भाषा में)
- शरीर = क्षेत्र (नाशवान, भौतिक)।
- आत्मा = क्षेत्रज्ञ (अमर, शाश्वत)।
- सच्चा ज्ञान यह है कि हम आत्मा हैं, शरीर नहीं।
- भगवान सब प्राणियों में समान रूप से विद्यमान हैं।
- यह समझ लेने से मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है।