👉 पाँचवाँ अध्याय कर्म (कर्तव्य) और संन्यास (त्याग) के बीच अंतर और उनके सामंजस्य को समझाता है। अर्जुन यहाँ पूछते हैं कि क्या कर्म करना श्रेष्ठ है या संन्यास लेना? इस पर श्रीकृष्ण दोनों मार्गों का तुलनात्मक ज्ञान देते हैं।
मुख्य विषय
1. कर्म बनाम संन्यास
- श्रीकृष्ण कहते हैं कि केवल संन्यास (संसार त्याग) कठिन है।
- निष्काम भाव से किया गया कर्म (बिना फल की इच्छा वाला कर्म) संन्यास से भी श्रेष्ठ है।
“संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥”
(अध्याय 5, श्लोक 2)
2. निष्काम कर्मी और संन्यासी समान
- जो मनुष्य कर्म करता हुआ भी आसक्ति नहीं रखता, वही सच्चा संन्यासी है।
- वास्तविक संन्यास का अर्थ है – अहंकार और फल की इच्छा का त्याग।
3. सच्चे योगी के लक्षण
- जो सुख-दुख, लाभ-हानि, मित्र-शत्रु में समभाव रखे वही सच्चा योगी है।
- उसे कोई बांध नहीं सकता क्योंकि वह अपने कर्म को ईश्वर को अर्पित करता है।
4. ज्ञान और कर्म का संगम
- ज्ञानी व्यक्ति समझता है कि आत्मा अकर्ता (कुछ नहीं करती) है, केवल शरीर प्रकृति के गुणों से कर्म करता है।
- जब कर्म ईश्वर को समर्पित होता है तो उसका फल बंधनकारी नहीं होता।
5. शांति और आनंद की प्राप्ति
- जो व्यक्ति ईश्वर में लीन होकर कर्म करता है, उसे परम शांति प्राप्त होती है।
- आत्मज्ञानी व्यक्ति न जन्म से बंधा है, न मृत्यु से डरता है।
- अंततः वह ब्रह्म में स्थित होकर मुक्ति को प्राप्त होता है।
सरल सार (आसान भाषा में)
- केवल संन्यास कठिन है, कर्मयोग (निष्काम कर्म) श्रेष्ठ है।
- असली संन्यास त्याग और समभाव में है, न कि केवल कर्म छोड़ने में।
- ज्ञानी और निष्काम कर्मी दोनों ही मुक्ति पाते हैं।
- जो ईश्वर को सब कर्म अर्पित करता है, वही परम शांति और आनंद को प्राप्त करता है।