👉 गीता का सत्रहवाँ अध्याय मनुष्य की श्रद्धा (Faith) और उसकी तीन प्रकार की प्रवृत्तियों – सात्विक, राजसिक और तामसिक – का वर्णन करता है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि जैसे मनुष्य की श्रद्धा होती है, वैसा ही उसका स्वभाव, आचरण और भाग्य होता है।


मुख्य विषय

1. श्रद्धा के तीन प्रकार

  • सात्विक श्रद्धा
    ईश्वर, सत्य, भक्ति और कल्याणकारी कर्मों में आस्था।
    सात्विक श्रद्धा वाले लोग यज्ञ, दान और तप को शास्त्रानुसार करते हैं।
  • राजसिक श्रद्धा
    दिखावे और फल की इच्छा से प्रेरित आस्था।
    राजसिक लोग भोग, मान-सम्मान और शक्ति पाने के लिए कर्म करते हैं।
  • तामसिक श्रद्धा
    अज्ञान और अंधविश्वास में जकड़ी आस्था।
    ऐसे लोग बिना शास्त्रों के आदेश के क्रूर तप करते हैं, शरीर को कष्ट देते हैं और दुष्कर्मों में लगे रहते हैं।

2. आहार (भोजन) के तीन प्रकार

  • सात्विक आहार – रसपूर्ण, स्निग्ध, पौष्टिक, स्वच्छ और सात्त्विक भोजन (जैसे दूध, फल, अनाज)।
  • राजसिक आहार – तीखा, खट्टा, नमकीन, अधिक गरम, तिक्त और उतेजना देने वाला भोजन।
  • तामसिक आहार – बासी, सड़ा-गला, अधपका या अपवित्र भोजन।

3. यज्ञ, तप और दान के तीन प्रकार

  • सात्विक – निःस्वार्थ भाव से, केवल कर्तव्य मानकर करना।
  • राजसिक – दिखावे और फल की इच्छा से करना।
  • तामसिक – अज्ञान और अनुचित तरीके से करना।

4. ओम् तत् सत् – परम मंत्र

  • अध्याय के अंत में भगवान कहते हैं कि यज्ञ, तप और दान करते समय “ॐ तत् सत्” का उच्चारण करना चाहिए।
  • ये तीन शब्द ब्रह्म का प्रतीक हैं और समस्त कर्मों को शुद्ध और ईश्वर को अर्पित करते हैं।

महत्वपूर्ण श्लोक

“सात्त्विकी श्रद्धा भवति राजसी च तामसी च ये।
तामश्रृणु यथा प्रोक्ता यया यच्छ्रद्धया नरः॥”

(अध्याय 17, श्लोक 2)

अर्थ – मनुष्यों की श्रद्धा तीन प्रकार की होती है – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक। हे अर्जुन! अब सुनो, मनुष्य जैसी श्रद्धा से युक्त होता है, वैसा ही उसका स्वभाव और जीवन होता है।


सरल सार (आसान भाषा में)

  • मनुष्य की श्रद्धा तीन गुणों के अनुसार होती है – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।
  • भोजन, यज्ञ, दान और तप भी इन्हीं गुणों से प्रभावित होते हैं।
  • सात्त्विक श्रद्धा शुद्ध और मोक्षदायक है।
  • राजसिक और तामसिक श्रद्धा बंधन और पतन का कारण बनती है।
  • “ॐ तत् सत्” का जप करके हर कर्म को ईश्वर को समर्पित करना चाहिए।