👉 सातवाँ अध्याय भगवान की वास्तविकता, उनकी प्रकृति, और भक्तिभाव से उन्हें जानने का मार्ग बताता है। यहाँ श्रीकृष्ण स्वयं को परम तत्व (सत्य) के रूप में प्रकट करते हैं और बताते हैं कि भक्ति से ही मनुष्य उन्हें पूरी तरह जान सकता है।
मुख्य विषय
1. भगवान का वास्तविक ज्ञान
- श्रीकृष्ण कहते हैं – “अब तू मुझे पूरी तरह सुन, मैं तुझे ऐसा ज्ञान दूँगा जिसे जानकर कुछ भी और जानने की आवश्यकता नहीं रहेगी।”
- यह अध्याय सैद्धांतिक ज्ञान (ज्ञान) और उसका अनुभवात्मक पक्ष (विज्ञान) दोनों की व्याख्या करता है।
2. प्रकृति और पुरुष
- भगवान कहते हैं कि मेरी दो प्रकार की प्रकृति है –
- अपरा (भौतिक प्रकृति) – पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश), मन, बुद्धि और अहंकार।
- परा (आध्यात्मिक प्रकृति) – जीवात्मा।
- संपूर्ण जगत इन दोनों प्रकृतियों से बना है, और इनका अधिष्ठाता भगवान स्वयं हैं।
3. सर्वश्रेष्ठ सत्य
- भगवान ही सबका प्रारंभ, पालन और अंत हैं।
- वे ही सबका कारण और आधार हैं।
“मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥”
(अध्याय 7, श्लोक 7)
अर्थ – हे अर्जुन! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है। जैसे धागे में मोती पिरोए होते हैं, वैसे ही सब मुझमें स्थित हैं।
4. मनुष्य क्यों भ्रमित है?
- माया (प्रकृति की तीन गुण – सत्व, रज, तम) के कारण मनुष्य भगवान को नहीं पहचान पाता।
- यह माया बहुत कठिन है, परंतु जो भक्त भगवान की शरण में जाता है, वही इससे पार हो सकता है।
5. चार प्रकार के भक्त
भगवान कहते हैं कि चार प्रकार के लोग उनकी भक्ति करते हैं –
- आर्त (दुखी)
- अर्थार्थी (धन/लाभ चाहने वाले)
- जिज्ञासु (सत्य जानने की इच्छा वाले)
- ज्ञानी (सच्चा भक्त, जो भगवान को जानता है)
इनमें ज्ञानी भक्त को भगवान सबसे प्रिय मानते हैं।
6. दुर्लभ ज्ञान
- बहुत जन्मों की साधना के बाद ही कोई यह समझता है कि सब कुछ वासुदेव (भगवान) ही हैं।
- ऐसा ज्ञानी बहुत दुर्लभ है।
सरल सार (आसान भाषा में)
- भगवान ही परम सत्य और सबके आधार हैं।
- जगत उनकी अपरा और परा प्रकृति से बना है।
- माया के कारण मनुष्य भगवान को नहीं पहचानता।
- चार प्रकार के भक्त होते हैं, पर सच्चा ज्ञानी भक्त ही सर्वोत्तम है।
- भगवान को जानना बहुत दुर्लभ है, परंतु भक्ति से संभव है।