👉 पन्द्रहवाँ अध्याय गीता का अत्यन्त गूढ़ और आध्यात्मिक अध्याय है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण संसार (संसार वृक्ष) की उपमा देकर जीव, प्रकृति और परमात्मा के संबंध को समझाते हैं। इस अध्याय को गीता का सार अध्याय भी कहा जाता है।


मुख्य विषय

1. संसार वृक्ष (अश्वत्थ वृक्ष)

  • यह संसार एक उल्टा पीपल का वृक्ष है – जिसकी जड़ें ऊपर (ब्रह्म में) और शाखाएँ नीचे (भौतिक जगत में) हैं।
  • इसके पत्ते वेद हैं, और कर्म इसके विस्तार का कारण हैं।
  • यह वृक्ष अनादि है, परंतु विवेक द्वारा इसे काटकर ही मोक्ष पाया जा सकता है।

2. जीवात्मा और परमात्मा

  • जीवात्मा इस संसार वृक्ष में बंधा हुआ है।
  • वह शरीर बदलता है पर आत्मा अविनाशी रहती है।
  • परमात्मा सबके हृदय में स्थित हैं और जीव को स्मृति, ज्ञान और बुद्धि देते हैं।

3. क्षर और अक्षर

  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस जगत में दो प्रकार के पुरुष हैं –
    1. क्षर पुरुष – नाशवान (जीवात्मा, जो शरीर धारण करता है)।
    2. अक्षर पुरुष – अविनाशी (आत्मा, जो शरीर बदलता है पर स्वयं नष्ट नहीं होता)।

4. पुरुषोत्तम (सर्वोच्च पुरुष)

  • इन दोनों से ऊपर मैं हूँ, जो परम पुरुषोत्तम हूँ।
  • मैं ही सम्पूर्ण सृष्टि का पालन करने वाला और परम ध्येय हूँ।
  • जो मुझे पुरुषोत्तम रूप में जान लेता है, वही सच्चा ज्ञानी है और वही मुक्त होकर भगवान को प्राप्त होता है।

महत्वपूर्ण श्लोक

“उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥”

(अध्याय 15, श्लोक 17)

अर्थ – इन दोनों (क्षर और अक्षर) से परे एक और पुरुष है, वही परमात्मा है, जो तीनों लोकों में प्रवेश कर सबका पालन करता है।


सरल सार (आसान भाषा में)

  • संसार एक उल्टा वृक्ष है – इसकी जड़ ईश्वर में है और शाखाएँ भौतिक जगत में।
  • आत्मा (अक्षर) अविनाशी है, शरीर (क्षर) नाशवान है।
  • इन दोनों से ऊपर परम पुरुषोत्तम भगवान हैं।
  • जो पुरुषोत्तम को पहचान लेता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।