अध्याय 2: सांख्य योग (ज्ञान योग) – भगवद गीता
👉 गीता का दूसरा अध्याय सबसे महत्वपूर्ण अध्यायों में से एक है, क्योंकि इसमें श्रीकृष्ण ने कर्म, ज्ञान, आत्मा और योग की गहन व्याख्या की है। इसे गीता का सार अध्याय भी कहा जाता है।
मुख्य विषय:
- अर्जुन का विषाद
- पहले अध्याय में अर्जुन मोह और करुणा से विचलित हो जाते हैं।
- दूसरे अध्याय की शुरुआत में अर्जुन युद्ध करने से इंकार करते हैं और कृष्ण से मार्गदर्शन मांगते हैं।
- श्रीकृष्ण का उपदेश
- कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि आत्मा (आत्मन) अमर है – न आत्मा मरती है, न जन्म लेती है।
- शरीर नाशवान है, पर आत्मा शाश्वत है।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः॥”
(अध्याय 2, श्लोक 23) आत्मा न तो शस्त्र से कट सकती है, न अग्नि से जल सकती है, न जल से भीग सकती है, न वायु से सूख सकती है। - कर्म योग
- श्रीकृष्ण बताते हैं कि कर्म करना मनुष्य का धर्म है, परंतु फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए।
- प्रसिद्ध उपदेश: “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥”
(अध्याय 2, श्लोक 47) अर्थात – मनुष्य को कर्म करने का अधिकार है, परंतु फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।
- स्थितप्रज्ञ योग
- श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ (स्थिर बुद्धि वाले) व्यक्ति के लक्षण बताते हैं।
- जो सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय में समान भाव रखे और इंद्रियों को वश में रखे, वही स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
सरल भाषा में सार:
- आत्मा अमर है, शरीर नश्वर है।
- अपने कर्तव्य (धर्म) का पालन करना चाहिए।
- कर्म करो, लेकिन फल की चिंता मत करो।
- संतुलित और स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति ही सच्चा योगी है।